Thursday 30 March 2017

मार्च अंक 2017

                    गवाही          सय्यद अब्दुल्लाह तारिक  


आपत्ति- कुरआन भी कम-ज्यादा इसी (वेद जैसी) श्रेणी में आता है। यह भी नही कहा जा सकता कि यह सम्पूर्ण रूप से मुहम्मद (स0) साहब की रचना है या उसमें जो कुछ है वह मुहम्मद (स0) साहब का यह कहकर कहा हुआ है कि वह खुदा का कलाम है। तत्कालीन अरब में न कागज था न छपाई की व्यवस्था थी। खजूर के पत्तों पर, हड्डियांे पर अथवा झिल्ली के टुकड़ों पर लिखने की प्रथा थी। अतः कुछ तो, बल्कि शायद अधिकतर कुरआन सामग्री इस तरह लिखी गई थी। कुछ जो लोगांे को कन्ठस्थ था उनसे वह सामग्री ली गई खलीफा हज़तर उमर के जमाने में कुरआन की आयातों को संग्रहीत करने की व्यवस्था की गयी। हज़रत अबूबक्र ने यह काम हजरत (जैद) बिन साबित अन्सारी के सुपूर्द किया जो मुहम्मद (स0) साहब के कुछ समकालीन व्यक्तियों के साथ, जिन्हें सहाबा कहा जाता है, इस काम में जुट गये। यह ऐलान किया गया कि जिस किसी को कोई आयत या आयतें मुहम्मद साहब के कहने पर उन्होंने लिखी है वह प्रस्तुत की जायें। यही हुआ भी प्रस्तुति के पक्ष में दो व्यक्तियांे की गवाही ली गई और कुरआन संग्रहीत व पूर्ण किया गया। लोगों की याद्दाश्त पूर्णतया सही हो, यह जरूरी नही है और यही बात गवाही को लेकर है। ऐसे साक्ष्य को अटल व अवाधित मानने को कोई स्वस्थ आधार नही है, क्यांेकि याद्दाश्त बरहाल याददाशत है और गवाही आखिर गवाही है। पूरी सम्भावना यहां इस बात की है कि मुहम्मद (स0) साहब ही नही, उन व्यक्तियों के मन्तव्य भी कुरआन के अन्तर्गत आ गये होंगे जिन्होंने ‘आयते’ प्रस्तुत की थीं। इस तरह कुरआन को भी वेद की तरह एक संग्रहीत ग्रन्थ ही कहा जायेगा अन्तर केवल यह है कि वेद हजारों वर्ष से संग्रहीत हुए और कुरआन कुछ दशब्दियों में ही।

उत्तर- इस सन्दर्भ में आपकी जानकारी में बहुत सी गलतियों का मिश्रण तो है ही, निष्कर्ष निकालने में भी आप निष्पक्ष नही प्रतीत होते।
पहले तो यह संशोधन कर लें कि कुरआन एक ग्रन्थ के रूप में हजरत अबूबक्र रजि0 के शासन काल में संग्रीहत किया गया न कि हज़रत उमर रजि0 के, जैसे कि आपने लिखा है। हज़रत मुहम्मद (स0) साहब के स्वर्गवास के बाद हज़रत अबूबक्र खलीफा चुने गये। वह अपने निधन तक दो वर्षो से कुछ अधिक शासक रहे फिर हज़रत उमर खलीफा हुए। हज़रत उमर के शासन काल मे हज़रत अबूबक्र जीवित ही न थे, उन दोनों का आपसी परामर्श कैसे होता, जैसा कि आपने लिखा है!

अब आईये दुबारा इस वास्तविकता पर कि ईशदूत हज़रत मुहम्मद (स0) साहब के बाद हज़रत अबूबक्र रजि0 नियुक्त हुए और इसके बाद ढाई वर्ष से कम समय संसार में रहे। हजरत उमर रजि0 के परामर्श पर उन्होंने अपने जीवन काल में कुरआन को एक ग्रन्थ के रूप में संग्रहीत करने की व्यवस्था की। द्वितीय शासक हज़तर उमर रजि0 ने इस ग्रन्थ को अपने स्वर्गवास के समय अपनी सुपुत्री व हजरत मुहम्मद (स0) साहब की पत्नी हज़रत हफ़सा र0 के पास रखवा दिया। इस प्रकार कुरआन की प्रथम संकलित और लिखित प्रतिलिपि ईशदूत हज़रत मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के ढाई वर्ष के भीतर सुरक्षित कर ली गयी थी। आप अपनी इस शंका को दूर कर लें कि इसमें कुछ दशब्दियों का समय लगा था।

आपको इस बात का भली-भांति अनुमान होगा कि मुसलमान कुरआन पर आचरण के मामले में कितना ही दिवालिया हो गया हो लेकिन कुरआन व पैगम्बरे-कुरआन से उसकी श्रद्धा इस चरम सीमा तक पहुंची हुई है कि वह उनके किसी प्रकार के अपमान की संभावना को सहन नहीं कर सकता। यह उसे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय है। जब 1400 वर्ष पश्चात के अधूरे मुसलमान का यह हाल है तो इस की कल्पना भी नही की जा सकती कि सहाबा (ह0 मुहम्मद स0 के सत्संगी) जान बूझकर कुरआन में अपने कलाम का मिश्रण कर सकते थे। अनजाने में इसकी कितनी गुनजाईश थी, इसका अन्दाजा निम्न से लगायें-

पहले अपनी जानकारी की एक और त्रुटि को सही कर लें। आपने लिखा है कि कुछ या अधिक पुरानी सामग्री विभिन्न चीजों पर लिखी हुई थी और कुछ हिस्से लोगों को कन्ठस्थ थे, जिन्हें एकत्रित करके कुरआन संग्रीहत किया गया। ऐसा नही था, बल्कि तमाम कुरआन हजारो लोगों को कन्ठस्थ था और कुरआन की तमाम सामग्री भी विभिन्न वस्तुओं पर लिखी हुई सहाबा के पास मौजूद थी। ह0 मुहम्मद स0 पर जैसे ही कोई आयत अवतरित होती थी आप उसी समय हस्तलेखियों को बुलाकर लिखवा देते थे फिर उनसे पढ़वाकर सुनते थे ताकि कोई त्रुटि नहीे रह जाये। सहाबा (ह0 मुहम्मद स0 के सहचारी) भी इस भाग को उसी समय कन्ठस्थ कर लेते थे। इस प्रकार लिखित रूप में सम्पूर्ण कुरआन विभिन्न वस्तुओं पर ईशदूत स0 के हस्तलेखियों का लिखा हुआ मौजूद था। बहुत से सहाबा जो कन्ठस्थ करते थे, उसे अपने पास भी लिखकर रख लेते थे। ह0 अबूबक्र र0 ने जब कुरआन एकत्रित किया तो वह तमाम सामग्री एकत्रित की जो हजरत मुहम्मद स0 के हस्तलेखियों ने लिखी थी, दूसरे वह समस्त सामग्री भी एकत्रित की गयी जो सहाबा ने अपने पास लिख रखी थी और तीसरे कुरआन के कंठस्थियों को एकत्रित किया गया। उनमें से भी किसी एक स्रोत पर ही भरोसा नही किया बल्कि सभी कंठस्थ्यिों के सर्वसम्मत होने के पश्चात भी अगर कोई ‘आयत’ लिखे हुऐ रूप में उसी समय प्राप्त नही हुई तो उसकी उस समय तक तलाश की गई जब तक वह आयत किसी सहाबा के पास लिखित रूप में नही मिल गयी। इस प्रकार इन तीनों स्रोतों के आपसी पुष्टि और क्रास चैकिंग (ब्तवे बीमबापदहद्ध से यह प्रमाणित ग्रन्थ संग्रहीत हुआ जो हजरत अबूबक्र रजि0 से द्वितीय खलीफा (शासक) हजरत उमर रजि0 को हस्तान्तरित हुआ और जिसे फिर उन्होंने अपने स्वर्गवास के समय अपनी पुत्री हजरत हफ़सा के पास रखवा दिया था। तृतीय खलीफा हजरत उस्मान रजि0 ने उसकी 6 प्रतिलिपियां तैयार करवा कर विभिन्न स्थानों पर भेज दीं। इस पूरी कार्यवाही के समय ह0 मुहम्मद स0 के हस्तलेखी जिनको ईश्वर के दूत ने कुरआन बोलकर लिखवाया था, उपस्थित रहे। अब आप बतायें कि कौन सी गुंजाइश किसी एक शब्द के रददोबदल की भी बाकी रह जाती है ? क्या इस तिहरी क्रास चैकिंग को जिसमें कोई एक कंठस्थी नही बल्कि बड़ी संख्या में कंठस्थी शामिल थे, और जो ह0 मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के केवल ढाई वर्ष के अन्तराल के अन्दर हुई थी, आप अप्रमाणित कह सकते है ? क्या ऐसे प्रमाण को अटल मानने का कोई स्वस्थ आधार नही है ? अगर है तो फिर आखिर किस चीज को आप गवाही कहते हैं
इसके अतिरिक्त किसी सहाबी (सहचारी) का कलाम कुरआन में शामिल हो जाना तो दूर, स्वयं हजरत मुहम्मद स0 ने अपने शब्दों (जिन्हें हदीस कहते हैं) और कुरआन की वर्णनशैली में इतना स्पष्ट अन्तर है कि अरबी भाषा का साधारण विद्यार्थी भी उसे पहचान सकता है। कुरआन और हदीस की शैली का यह अन्तर इतना स्पष्ट है कि अनुवादों मंे भी पहचाना जा सकता है।

आप लिखते है कि ‘लोगों की याददाश्त पूर्णतया सही हो यह ज़रूरी नही है’। अपनी जानकारी के लिए सुन लें कि स्मरण शक्ति की भी लगातार परीक्षा होती रहती थी और यह परीक्षा आज तक जारी है। प्रतिदिन पांच समय की नमाज़ में कुरआन का कुछ भाग पढ़ना आवश्यक होेता है और वर्ष में एक बार रमज़ान के महीने में हर मस्जिद में एक कंठस्थी तरावीह की नमाज में पूरा कुरआन खत्म करता और दूसरे कंठस्थी उसको सुनते हैं। हजरत मुहम्मद स0 ने अपने स्वर्गवास से पूर्व रमज़ान के महीने में दो बार कुरआन सुनाया। उसी का यह परिणाम है कि आज संसार के हर उस भाग में जहां मुसलमान थोड़ी सी संख्या में आबाद हैं, वहां कुरआन के कंठस्थी मौजूद हैं और तजुर्बा किया जा सकता है कि संसार के दूर-दूर के भागों से विभिन्न कंठस्थियों को यदि एकत्रित करके कुरआन सुना जाये तो कोई अन्तर न होगा। यही हाल कुरआन के हस्तलिखित तथा छपी हुई प्रतियों का है। इस्लामी शासन के तीसरे खलीफा हजरत उसमान रजि0 ने जो हजरतर मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के 12 वर्ष बाद खलीफा हुए, उनके विभिन्न देशों में भेजे हुए कुरआन की 6 हस्तलिपियों में से दो प्रतियां ताशकन्द और इस्तम्बोल के संग्राहलयों में आज भी मौजूद हैं। इन प्रतियों और संसार के किसी काल के और किसी क्षेत्र के छपे हुए कुरआन में एक अक्षर का भी अन्तर नही है। कभी अगर कुरआन की छपाई में अत्याधिक सतर्कता के पश्चात भी छपाई की गलती होतीहै तो वह तुरन्त पकड़ ली जाती है क्योंकि संासर के हर क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में कंठस्थी मौजूद हैं। जिनकी संख्या लाखों से भी अधिक है। यही कारण है कि अत्यन्त पक्षपाती कुछ लेखकों को छोड़ कर यूरोपीय इतिहासकारों की अधिक संख्या इस बात को मानती है कि संसार में आज जो कुरआन मौजूद है उसका एक-एक अक्षर वही है जिसके हजरत मुहम्मद स0 ने ईश्वरीय ग्रन्थ होने का दावा किया था।              







Wednesday 1 March 2017

फरवरी 2017 epaper

आपत्तिः
आखिर वह विषेष व्यक्ति या पैग़म्बर दूसरों से कहेगा वह उसकी सुनी हुई बात होगी जो अन्य सबके लिए सुने हुये(hear -say ) के दर्जे का ही अप्रमाणित साक्ष्य होगा। वह सन्देष वेदों के लिए खुदा का कहा हुआ नही बल्कि उस विषेष व्यक्ति का कहा हुआ ही होगा जो यह कहता है कि ईष्वर या खुदा ने उससे ऐसा कहा था। ऐसी गवाही कानून की नज़र में घटिया गवाही है। क्या ज़मानत है इस बात की कि मुहम्मद साहब खुदा के पैग़म्बर है? केवल मुहम्मद साहब का अपना ब्यान, बु़िद्ध विवेक की नज़़रों में ठोस सबूत नही माना जा सकता। किसी ने न फ़रिष्ते आते हुये और मुहम्मद साहब को आयतें सुनाते या पैगा़म देते देखे, न अन्य कोई प्रमाण है इस श्रद्धा-जन्य धारणा के पक्ष में। 

उत्तर- जहाँ तक कानूनी प्रमाण का सम्बन्ध है, प्रमाण तो उस दषा में भी नही हो सकता जिसका आपने प्रस्ताव रखा है। एक व्यक्ति कहता है कि मेरे मन में ईष्वर ने यह डाला है कि गरीबों की सहायता करों, दूसरा यह कह सकता था कि नही, ईष्वर की इच्छा है कि हर कोई अपनी मेहनत की कमाई खाये, दूसरों को दान देकर उसे निकम्मा न बनाये। क्या प्रमाण होता है इस बात का कि पहला व्यक्ति ठीक कह रहा था सिवाये इसके कि दूसरा व्यक्ति अपने मन में यह मानता कि प्रथम व्यक्ति सच्चा था? लेकिन मन के अन्दर से किसी सच्चाई को स्वीकार करने के बाद कोई ज़बान से इन्कार करे तो प्रमाण की आवष्यकता होती है। इसे ही कानूनी प्रमाण कहते है। कातिल जब कत्ल से इन्कार करता है तो वह अपने मन मंे यह जानता है कि वह झूठा है न्याय प्रमाण चाहता है। कानून की षब्दावली में एक चीज़ होती है परिस्थिति मूलक साक्ष्य(circumstaintial evidence )।

अब देखियें! मानव इतिहास के सबसे अन्धकारमय युग मंे अपने समय की सबसे अधिक भटकी हुई कौ़म में एक बच्चा पैदा होता है। अपनी आयु की 40 मन्ज़िलें तय करने तक किसी एक भी छोटी से छोटी बुराई में षामिल नही होता। उसने 40 वर्ष में कभी कोई झूठ नही बोला, कभी किसी को धोखा नही दिया, कभी किसी का दिल नही दुखाया, कभी किसी का अधिकार हनन नही किया, कभी किसी अमानत में हैराफेरी नही की। उसकी कौ़म उसको ’अल-अमीन’ (धरोहरधारी) और ’ उस्सादिक’(सदा सत्यवादी) की उपाधि देती है।

वह 40 वर्ष की आयु में अचानक यह घोषणा करता है कि ईष्वर ने उसको दूत बनाया है। उसने खुदाई का दावा नही किया,ईष्वर का पुत्र होने का दावा नी किया बल्कि अपने आपको, ईष्वर का बन्दा व दास कहा और यह कहा कि ईष्वर ने मनुष्य के मार्ग- दर्षन के लिये उसके पास सन्देष भेजा है। इस घोषणा के बाद वह जो कौ़म की आँखो का तारा था, उनके क्रोध का पात्र हो गया। उसके आहवान से उनकी सभी आस्थाओं व कुकर्मो के महल टूट रह थे। उसके सामने प्रस्ताव रखा गया कि वह चाहे तो उसको कौ़म का सरदार बना दिया जाये। वह ज़बान से निकाले तो अरब की सुन्दर से सुन्दर युवतियाँ उसके चरणों में डाल दी जायंे। वह कहे तो उसके टूटे फूटे घर पर धन का ढेर लगा दिय जाये, लेकिन वह अपने धर्म प्रचार से बाज़ आजाये। उसके बूढे संरक्षक चाचा से उस पर जो़र डलवाया गया तो वह व्यक्ति उत्तर देता है कि ’’खुदा की क़सम चाचा जी, अगर यह लोग मेरे एक हाथ पर सुर्य और एक हाथ पर चन्द्रमा भी लाकर रख दें तब भी अपने सन्देश  से विचलित नही हो सकता’’।

उसके और उसके साथियों पर अत्याचार व दमन का दौर शूरू होता है। ढाई वर्ष तक उसकी और उसके परिवार वालों की ऐसी आर्थिक नाकाबन्दी होती है कि वृक्षों की छालें खा-खाकर गुजारा होता है मगर वह कहता है कि वह तो ईशदूत  है और ईश्वर  के सन्देष से हटना उसके लिए संभव नही है। उसके साथियों को अरब की जलती रेत पर नंगे रीर लिटाकर गले में रस्सी डाल कर खींचा जाता है। उसके मानने वालों को चटाई में लपेट कर धुऐं की धूनी दी जाती है। उसके आहवान का समर्थन करने वालो को नंगी पीठ अंगारों पर लिटाकर सीने पर भारी पत्थर रख दिया जाता है यहाँ तक कि रीर की चर्बी से अंगारे बुझते है। उसकी आवाज़ का का साथ देने वाली बूढी स्त्री को क्रूरता से भाला मारकर हीद किया जाता है। वह अपने मुट्ठी भर मतवालो की दर्दनाक कराहें सुनता है, लेकिन वह यही कहता है कि ईश्वर  का ही दूत है। वह जिस मार्ग से गुज़रता है उस पर काॅटे बिछाये जाते है। उसको इतने पत्थर मारे जाते है कि उसका षरीर खून में नहा जाता है और जूतो में खून भर जाने से पैर जूतों से चिपक जाते है। पाॅँव जवाब दे जाते है। थक कर बैठता है तो जबरदस्ती खडा कर दिया जाता है, पत्थरो की वर्षा फिर षुरू हो जाती है। परन्तु वह कांटे बिछाने वालो और पत्थर मारने वालो को दुआ देता है। उसके सिर पर रोजाना अपनी छत से कूड़ा फैंकने वाली स्त्री जब बीमार हो जाती है तो वह उसकी खै़रियत पूछने जाता है। जिन अत्याचारो को 13 घंटे सहन करना असम्भव है, उन्हें वह और उसके साथी निरन्तर 13 वर्षो तक सहन करते है।
और अन्त में वह सभी अपना घर और वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिये जाते है। 13 वर्षो तक यह घोर अत्याचार सहन करने वाला यही कहता रहता है कि लोगो! में तुम्हारी ओर ईष्वर का दूत हूँ। अपने देष से 500 किमी0 दूर उसे षरण मिलती है, मदीने की बस्ती के लोग उस पर ईमान लाते है। यहाँ धीरे धीरे अनुयायियों की संख्या बढ़ती है। मक्के से उसके जो साथी षरणार्थी बनकर आये थे वह भी अब खुषहाल हो गये हैं। जो मदीने का बेताज़ बादषाह बन गया है उसकी पत्नियाँ एक दिन यह मांग करती है कि हे ईष्दूत अब तो हर घर में खुषहाली आ गयी है अब कुछ हमारे गुजारे में भी वृद्धि होनी चाहिए। वह व्यक्ति उत्तर देता है कि उन्हे स्वतन्त्रता है कि दो में से किसी एक का चयन कर लें, उससे अलग रहकर खुषहाली का जीवन व्यतीत कर लें या उसके साथ रहकर फ़ाक़ो का।
वतन वाले यहां भी पीछा नही छोड़ते। उस पर सेनाएं इकट्ठा करके चढ़ाईयां करते है। षान्ति के दूत को षस्त्र उठाने के लिये मजबूर करते हैं। आखिर आठ साल मदीने में जीवन बिताने के बाद मक्के की विजय का दिन आता है। जिन षत्रुओं ने उसका जीना दूभर का दिया था उनके लिए वह सार्वजनिक क्षमा की घोषणा करता है। यहां तक की जिन घरो से उसको और उसके साथियो को निकाला गया था, विजेता के रूप में मक्के मंे प्रवेष के पष्चात उन्हें भी वापस नही लेता। वह सांसरिक ऐष्वर्यमय जीवन का इच्छुक नही है। उसकी तो केवल एक इच्छा है। लोग अपने असली ईष्वर को पहचान लें और अपने स्वामी के संदेष को स्वीकार कर लें।
23 वर्षो में अरब के कोने-कोने में षान्ति स्थापित हो गयी। समय के क्रूरतम आतंकी षान्ति के दूत बन गये। ऊँटो के चराने वाले क़ौमों के इमाम (मार्गदर्षक) बन गये। विष्व इतिहास की इस आष्चर्यजनक क्रान्ति का वह हीरो जिसकी दृष्टि के एक संकेत पर जान न्योछावर करना उसके परवाने अपने जीवन का उद्देष्य समझते है, उसके स्वर्गवास के पष्चात उसकी पत्नी की गवाही सुनिये, ’’उस व्यक्ति ने अपने जीवन काल में कभी पेट भर रोटी नही खायी थी ’’। वह व्यक्ति जीवन भर यह कहता रहा कि लोगो में झूठ नही बोलता, में ईष्वर का दूत हूँ।
वह, जिसको लिखना पढ़ना नही आता था, उसने संसार को आष्चर्यजनक तत्वज्ञान दिया। उसने दुनिया को अभूतपूर्व आर्थिक प्रणाली प्रदान की। उसने नागरिक षास्त्र के वह सिद्धान्त पेष किये जो अद्वितीय हैं। उसने समाज षास्त्र के सफलतम आधार स्थापित किये। उसने अत्यन्त भटकी हुई कौम को नैतिकता के सर्वोच्च षिखर तक पहँुचा दिया। उसने दासता के बाजार में समानता का ऐसा अविष्वसनीय ष्वास फूँक दिया कि इतिहास ने ऐसा दृष्य भी देखा जब एक गुलाम ऊट पर सवार है और समय का हाकिम उसकी नकेल पकडे पैदल चल रहा है। उसने राजनीति के अद्भुत नमूने प्रस्तुत किये। उसने महान सेनापति कि रूप में अपना लोहा मनवाया। उसने समाजिक क्रान्ति का पवित्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उसने न्याय की अद्वितीय प्रणाली स्थापित की। गै़र मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिपिबद्ध इतिहास पृष्ठ साक्षी है कि यह तमाम गुण उस व्यक्ति में 23 वर्ष की असम्भव अवधि में प्रकट हुये और इतिहास इस बात का भी साक्षी है की उसने कभी अपने जीवन में उन पर गर्व नही किया बल्कि वह व्यक्ति सदैव यही कहता रहा कि लोंगो में जो कुछ कर रहा हुँ ईष्वर के मार्गदर्षन में कर रहा हूँ, तुम सबकी ओर में ईश्वर का दूत हूँ।

इन तमाम विषेषताओं से परिपूर्ण उस व्यक्ति ने अपने अनुयायियों के सिर को कभी अपने सम्मान हेतु अपने आगे नही झुकने दिया बल्कि उसने तो यह भी पसन्द नही किया उसकी सभा में लोग उसके आदर सत्कार के लिए खडे हों। अपना चित्र बनाने से इसलिए मना कर दिया कि उसके स्वर्गवास के उपरान्त लोग श्रद्धा में सीमाओ का उल्लंघन कर उसके चित्र की पूजा न करने लगें। उसने सदैव यही कहा कि पूजा के योग्य सिर्फ एक ईष्वर एक खुदा है। मैं तो केवल ईश्वर का दूत एवं दास हूँ।
क्या इन 23 वर्षो की परिस्थितियों व घटनाओं का एक-एक क्षण पुकार-पुकार के गवाही नही दे रहा है कि यह किसी झूठे व्यक्ति का जीवन नही है? वह अपने दावे से सच्चा था। वह ईश्वर का दूत था।(उन पर षान्ति हो)

उसकी महानता को तो आप भी स्वीकार करते है परन्तु आप यह मानने को तैयार नही है कि वह ईश्वर का दूत हो सकता था। आप माने या न मानें, इसका आपको अधिकार है परन्तु यह सुनले कि यह परिस्थिति मूलक गवाही(circumstaintial evidence) घटिया गवाही नही है। मेरे पास आकर कोई व्यक्ति यह कहे कि वह व्यापरी है, कुछ समय वह मेरे पास रहें और में देखूँ कि वह व्यापार के तमाम रहस्यों से परिचित है। उसकी बताई हुई योजनाओं को कार्यान्वित करने से मेरे व्यापार में उन्नती भी हो और वह व्यक्ति मुझसे किसी भी प्राकार के लाभ व बदले का इच्छुक न हो तो मेरे पास यह सन्देह करने का कोई उचित कारण न होगा कि वह व्यापरी नही है।

लेकिन अभी रूके। गवाही केवल परिस्थिति मूलक ही नही दस्तावेजी़ सबूत(documentry  evidence) भी विद्यमान है। एक नही अनेक है। उसके आने से पूर्व ही से, षताब्दियों पहले से संसार के अनेकों धर्मो के ग्रन्थ उसके आने की गवाही देते चले आ रहे है। यह प्रमाण आज भी मौजूद है। यह बाद में क्रमबद्ध किये हुय(
afterthought ) नही है। यह महान गवाहियाँ किसी तरह से घटिया गवाहियाँ नही मानी जासकतीं। आप अधिक से अधिक यह कह सकते है कि गवाही में प्रस्तुत किये जाने वाले ग्रन्थों को भी आप ईष्वर प्रेषित ग्रन्थ नही मानते, परन्तु इससे गवाही कमजो़र नही होती। वह ईश्वर की ओर से हों या मनुष्यों के बनाये हुये, यह दस्तावेज़ उसके संसार में आने से षताब्दियों पहले से मौजूद है और यह वास्तविकता उनको अत्यन्त प्रमाणित गवाहों की पंक्ति में खडा करती है।

परन्तु आपके पास षक करने का एक कारण बाकी है। उस व्यक्ति का प्रस्तुत किया हुआ कलाम(वाणी) जिसे वह ईश्वर का कलाम कहता था और आप उसे ईश्वर का कलाम मानने को तैयार नही है। इस कलाम पर आपकी जो षंकाएं है उन्हे में आपकी अगली आपत्तियों के उत्तर में दूर करने का प्रयास करूँगा।