Thursday 30 March 2017

मार्च अंक 2017

                    गवाही          सय्यद अब्दुल्लाह तारिक  


आपत्ति- कुरआन भी कम-ज्यादा इसी (वेद जैसी) श्रेणी में आता है। यह भी नही कहा जा सकता कि यह सम्पूर्ण रूप से मुहम्मद (स0) साहब की रचना है या उसमें जो कुछ है वह मुहम्मद (स0) साहब का यह कहकर कहा हुआ है कि वह खुदा का कलाम है। तत्कालीन अरब में न कागज था न छपाई की व्यवस्था थी। खजूर के पत्तों पर, हड्डियांे पर अथवा झिल्ली के टुकड़ों पर लिखने की प्रथा थी। अतः कुछ तो, बल्कि शायद अधिकतर कुरआन सामग्री इस तरह लिखी गई थी। कुछ जो लोगांे को कन्ठस्थ था उनसे वह सामग्री ली गई खलीफा हज़तर उमर के जमाने में कुरआन की आयातों को संग्रहीत करने की व्यवस्था की गयी। हज़रत अबूबक्र ने यह काम हजरत (जैद) बिन साबित अन्सारी के सुपूर्द किया जो मुहम्मद (स0) साहब के कुछ समकालीन व्यक्तियों के साथ, जिन्हें सहाबा कहा जाता है, इस काम में जुट गये। यह ऐलान किया गया कि जिस किसी को कोई आयत या आयतें मुहम्मद साहब के कहने पर उन्होंने लिखी है वह प्रस्तुत की जायें। यही हुआ भी प्रस्तुति के पक्ष में दो व्यक्तियांे की गवाही ली गई और कुरआन संग्रहीत व पूर्ण किया गया। लोगों की याद्दाश्त पूर्णतया सही हो, यह जरूरी नही है और यही बात गवाही को लेकर है। ऐसे साक्ष्य को अटल व अवाधित मानने को कोई स्वस्थ आधार नही है, क्यांेकि याद्दाश्त बरहाल याददाशत है और गवाही आखिर गवाही है। पूरी सम्भावना यहां इस बात की है कि मुहम्मद (स0) साहब ही नही, उन व्यक्तियों के मन्तव्य भी कुरआन के अन्तर्गत आ गये होंगे जिन्होंने ‘आयते’ प्रस्तुत की थीं। इस तरह कुरआन को भी वेद की तरह एक संग्रहीत ग्रन्थ ही कहा जायेगा अन्तर केवल यह है कि वेद हजारों वर्ष से संग्रहीत हुए और कुरआन कुछ दशब्दियों में ही।

उत्तर- इस सन्दर्भ में आपकी जानकारी में बहुत सी गलतियों का मिश्रण तो है ही, निष्कर्ष निकालने में भी आप निष्पक्ष नही प्रतीत होते।
पहले तो यह संशोधन कर लें कि कुरआन एक ग्रन्थ के रूप में हजरत अबूबक्र रजि0 के शासन काल में संग्रीहत किया गया न कि हज़रत उमर रजि0 के, जैसे कि आपने लिखा है। हज़रत मुहम्मद (स0) साहब के स्वर्गवास के बाद हज़रत अबूबक्र खलीफा चुने गये। वह अपने निधन तक दो वर्षो से कुछ अधिक शासक रहे फिर हज़रत उमर खलीफा हुए। हज़रत उमर के शासन काल मे हज़रत अबूबक्र जीवित ही न थे, उन दोनों का आपसी परामर्श कैसे होता, जैसा कि आपने लिखा है!

अब आईये दुबारा इस वास्तविकता पर कि ईशदूत हज़रत मुहम्मद (स0) साहब के बाद हज़रत अबूबक्र रजि0 नियुक्त हुए और इसके बाद ढाई वर्ष से कम समय संसार में रहे। हजरत उमर रजि0 के परामर्श पर उन्होंने अपने जीवन काल में कुरआन को एक ग्रन्थ के रूप में संग्रहीत करने की व्यवस्था की। द्वितीय शासक हज़तर उमर रजि0 ने इस ग्रन्थ को अपने स्वर्गवास के समय अपनी सुपुत्री व हजरत मुहम्मद (स0) साहब की पत्नी हज़रत हफ़सा र0 के पास रखवा दिया। इस प्रकार कुरआन की प्रथम संकलित और लिखित प्रतिलिपि ईशदूत हज़रत मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के ढाई वर्ष के भीतर सुरक्षित कर ली गयी थी। आप अपनी इस शंका को दूर कर लें कि इसमें कुछ दशब्दियों का समय लगा था।

आपको इस बात का भली-भांति अनुमान होगा कि मुसलमान कुरआन पर आचरण के मामले में कितना ही दिवालिया हो गया हो लेकिन कुरआन व पैगम्बरे-कुरआन से उसकी श्रद्धा इस चरम सीमा तक पहुंची हुई है कि वह उनके किसी प्रकार के अपमान की संभावना को सहन नहीं कर सकता। यह उसे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय है। जब 1400 वर्ष पश्चात के अधूरे मुसलमान का यह हाल है तो इस की कल्पना भी नही की जा सकती कि सहाबा (ह0 मुहम्मद स0 के सत्संगी) जान बूझकर कुरआन में अपने कलाम का मिश्रण कर सकते थे। अनजाने में इसकी कितनी गुनजाईश थी, इसका अन्दाजा निम्न से लगायें-

पहले अपनी जानकारी की एक और त्रुटि को सही कर लें। आपने लिखा है कि कुछ या अधिक पुरानी सामग्री विभिन्न चीजों पर लिखी हुई थी और कुछ हिस्से लोगों को कन्ठस्थ थे, जिन्हें एकत्रित करके कुरआन संग्रीहत किया गया। ऐसा नही था, बल्कि तमाम कुरआन हजारो लोगों को कन्ठस्थ था और कुरआन की तमाम सामग्री भी विभिन्न वस्तुओं पर लिखी हुई सहाबा के पास मौजूद थी। ह0 मुहम्मद स0 पर जैसे ही कोई आयत अवतरित होती थी आप उसी समय हस्तलेखियों को बुलाकर लिखवा देते थे फिर उनसे पढ़वाकर सुनते थे ताकि कोई त्रुटि नहीे रह जाये। सहाबा (ह0 मुहम्मद स0 के सहचारी) भी इस भाग को उसी समय कन्ठस्थ कर लेते थे। इस प्रकार लिखित रूप में सम्पूर्ण कुरआन विभिन्न वस्तुओं पर ईशदूत स0 के हस्तलेखियों का लिखा हुआ मौजूद था। बहुत से सहाबा जो कन्ठस्थ करते थे, उसे अपने पास भी लिखकर रख लेते थे। ह0 अबूबक्र र0 ने जब कुरआन एकत्रित किया तो वह तमाम सामग्री एकत्रित की जो हजरत मुहम्मद स0 के हस्तलेखियों ने लिखी थी, दूसरे वह समस्त सामग्री भी एकत्रित की गयी जो सहाबा ने अपने पास लिख रखी थी और तीसरे कुरआन के कंठस्थियों को एकत्रित किया गया। उनमें से भी किसी एक स्रोत पर ही भरोसा नही किया बल्कि सभी कंठस्थ्यिों के सर्वसम्मत होने के पश्चात भी अगर कोई ‘आयत’ लिखे हुऐ रूप में उसी समय प्राप्त नही हुई तो उसकी उस समय तक तलाश की गई जब तक वह आयत किसी सहाबा के पास लिखित रूप में नही मिल गयी। इस प्रकार इन तीनों स्रोतों के आपसी पुष्टि और क्रास चैकिंग (ब्तवे बीमबापदहद्ध से यह प्रमाणित ग्रन्थ संग्रहीत हुआ जो हजरत अबूबक्र रजि0 से द्वितीय खलीफा (शासक) हजरत उमर रजि0 को हस्तान्तरित हुआ और जिसे फिर उन्होंने अपने स्वर्गवास के समय अपनी पुत्री हजरत हफ़सा के पास रखवा दिया था। तृतीय खलीफा हजरत उस्मान रजि0 ने उसकी 6 प्रतिलिपियां तैयार करवा कर विभिन्न स्थानों पर भेज दीं। इस पूरी कार्यवाही के समय ह0 मुहम्मद स0 के हस्तलेखी जिनको ईश्वर के दूत ने कुरआन बोलकर लिखवाया था, उपस्थित रहे। अब आप बतायें कि कौन सी गुंजाइश किसी एक शब्द के रददोबदल की भी बाकी रह जाती है ? क्या इस तिहरी क्रास चैकिंग को जिसमें कोई एक कंठस्थी नही बल्कि बड़ी संख्या में कंठस्थी शामिल थे, और जो ह0 मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के केवल ढाई वर्ष के अन्तराल के अन्दर हुई थी, आप अप्रमाणित कह सकते है ? क्या ऐसे प्रमाण को अटल मानने का कोई स्वस्थ आधार नही है ? अगर है तो फिर आखिर किस चीज को आप गवाही कहते हैं
इसके अतिरिक्त किसी सहाबी (सहचारी) का कलाम कुरआन में शामिल हो जाना तो दूर, स्वयं हजरत मुहम्मद स0 ने अपने शब्दों (जिन्हें हदीस कहते हैं) और कुरआन की वर्णनशैली में इतना स्पष्ट अन्तर है कि अरबी भाषा का साधारण विद्यार्थी भी उसे पहचान सकता है। कुरआन और हदीस की शैली का यह अन्तर इतना स्पष्ट है कि अनुवादों मंे भी पहचाना जा सकता है।

आप लिखते है कि ‘लोगों की याददाश्त पूर्णतया सही हो यह ज़रूरी नही है’। अपनी जानकारी के लिए सुन लें कि स्मरण शक्ति की भी लगातार परीक्षा होती रहती थी और यह परीक्षा आज तक जारी है। प्रतिदिन पांच समय की नमाज़ में कुरआन का कुछ भाग पढ़ना आवश्यक होेता है और वर्ष में एक बार रमज़ान के महीने में हर मस्जिद में एक कंठस्थी तरावीह की नमाज में पूरा कुरआन खत्म करता और दूसरे कंठस्थी उसको सुनते हैं। हजरत मुहम्मद स0 ने अपने स्वर्गवास से पूर्व रमज़ान के महीने में दो बार कुरआन सुनाया। उसी का यह परिणाम है कि आज संसार के हर उस भाग में जहां मुसलमान थोड़ी सी संख्या में आबाद हैं, वहां कुरआन के कंठस्थी मौजूद हैं और तजुर्बा किया जा सकता है कि संसार के दूर-दूर के भागों से विभिन्न कंठस्थियों को यदि एकत्रित करके कुरआन सुना जाये तो कोई अन्तर न होगा। यही हाल कुरआन के हस्तलिखित तथा छपी हुई प्रतियों का है। इस्लामी शासन के तीसरे खलीफा हजरत उसमान रजि0 ने जो हजरतर मुहम्मद स0 के स्वर्गवास के 12 वर्ष बाद खलीफा हुए, उनके विभिन्न देशों में भेजे हुए कुरआन की 6 हस्तलिपियों में से दो प्रतियां ताशकन्द और इस्तम्बोल के संग्राहलयों में आज भी मौजूद हैं। इन प्रतियों और संसार के किसी काल के और किसी क्षेत्र के छपे हुए कुरआन में एक अक्षर का भी अन्तर नही है। कभी अगर कुरआन की छपाई में अत्याधिक सतर्कता के पश्चात भी छपाई की गलती होतीहै तो वह तुरन्त पकड़ ली जाती है क्योंकि संासर के हर क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में कंठस्थी मौजूद हैं। जिनकी संख्या लाखों से भी अधिक है। यही कारण है कि अत्यन्त पक्षपाती कुछ लेखकों को छोड़ कर यूरोपीय इतिहासकारों की अधिक संख्या इस बात को मानती है कि संसार में आज जो कुरआन मौजूद है उसका एक-एक अक्षर वही है जिसके हजरत मुहम्मद स0 ने ईश्वरीय ग्रन्थ होने का दावा किया था।              







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